Principles of Naturopathy

प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांत

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शरीर में दूषित, विषाक्त एवं विजातीय पदार्थों के एकत्र होने से रोग उत्पन्न होते हैं। इन पदार्थों के एकत्र होने का मुख्य स्थान पेट है। इसलिए यदि पेट स्वस्थ है तो हम भी स्वस्थ हैं और पेट बीमार तो हम बीमार। जो भोजन हम लेते हैं उसमें 75 प्रतिशत क्षारतत्व एवं 25 प्रतिशत अम्ल तत्व होना चाहिए। यदि भोजन में 25 प्रतिशत से अधिक अम्लीय आहार लिया जाता है तो रक्त में अधिक खटाई हो जाती है, इस कारण वह दूषित हो जाता है। शरीर इस दूषित पदार्थ को पसीने एवं मूत्र द्वारा अंदर से बाहर निकालने की चेष्टा करता है। यदि बाहर नहीं निकलता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार जो आहार (भोज्य पदार्थ) पच नहीं पाता अर्थात रस-रक्त में परिवर्तित नहीं हो पाता, वह शरीर के लिए विजातीय पदार्थ है। उसे बाहर निकाल देना चाहिए। उसका कुछ अंश भी यदि शरीर में रह जाये तो वह रक्त-संचरण के द्वारा समस्त शरीर में फैलकर दूषित विकार एवं रोग उत्पन्न करता है। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा इन्हीं विजातीय पदार्थों को हटाकर शरीर को स्वस्थ किया जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा में पंचमहाभूत- पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश द्वारा चिकित्सा की जाती है। बिना औषध के मिट्टी, पानी, हवा (एनिमा), सूर्य-प्रकाश, उपवास एवं फलों, सब्जियों द्वारा चिकित्सा की जाती है। आहार, ऋतुचर्या, दिनचर्या, रात्रिचर्यापर विशेष ध्यान दिया जाता है तथा प्रकृति के निकट रहने का अधिकाधिक प्रयास किया जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी, जल, धूप एवं उपवास का उपयोग

  1. मिट्टी चिकित्सा का उपयोग

इस पंच-भूतात्मक शरीर में मिट्टी (पृथ्वीतत्व)-की प्रधानता है। मिट्टी हमारे शरीर के विषों, विकारों विजातीय पदार्थों को निकाल बाहर करती है। यह प्रबल कीटाणुनाशक है। मिट्टी विश्व की महानतम औषधि है।

मिट्टी चिकित्सा के प्रकार (क) मिट्टीयुक्त जमीन पर नंगे पांव चलना-स्वच्छ धरती पर, बालू, मिट्टी, या हरी दूब पर प्रात:-सायं भ्रमण करने से जीवनी-शक्ति बढ़कर अनेक रोगों से लडऩे की क्षमता प्रदान करती है।

(ख) मिट्टी के बिस्तर पर सोना- धरती पर सीधे लेटकर सोने से शरीर पर गुरुत्वाकर्षण-शक्ति शून्य हो जाती है। स्नायविक दुर्बलता, अवसाद, तनाव, अहंकार की भावना दूर होकर नयी ऊर्जा एवं प्राण शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसके लिए धरती पर या पलंग पर आठ इंच से बारह इंच तक मोटी समतल बालू बिछाकर सोना चाहिए। प्रारंभ में थोड़ी कठिनाई होती है, परंतु अभ्यास करने से धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है।

(ग) सर्वांग में गीली मिट्टी का लेप- सर्वप्रथम किसी अच्छे स्थान से चिकनी मिट्टी को लाकर उसे कंकड़ पत्थर रहित करके साफ-स्वच्छ करने के बाद कूट-पीसकर छानकर शुद्ध जल में बारह घंटे तक भिंगो दे। उसके बाद आटे की तरह गूंदकर मक्खन सदृश लोई बनाकर समस्त शरीर पर इस मुलायम मिट्टी को आधा सेमी. मोटी परत के रूप में पेट, पैर, रीढ़, गर्दन, चेहरा, जननांगों और सिर पर लेप करे। इसके बाद पौन घंटा से एक घंटा तक धूप-स्नान ले। मिट्टी सूखने से त्वचा में खिंचाव होने से वहां का व्यायाम होता है और रक्त-संचार तीव्र होकर पोषण मिलता है। धूप-स्नान से मिट्टी को पूर्णत: सुखाकर भलीभांति स्नान करके विश्राम करे।

 

प्राकृतिक चिकित्सा क्या है?

 

जिन लोगों ने प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली के आधारभूत सिद्धांतों को नहीं समझा है, वे ऐसा कुछ समझते है कि यह कुछ खब्तों और वादों का संग्रह मात्र है- कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा लेकर भानुमतीका का कुनबा जोड़ा गया है और जो लोग इसके सिद्धांतों और तथ्यों का प्रचार करते हैं, वे खब्ती हैं। कारण यह है कि वर्तमान पीढ़ी पर ‘विज्ञान’ शब्द का जादू इस प्रकार काम कर गया है कि लोग अपने शरीर में निहित आरोग्यदायिनी प्राकृतिक शक्तियों के संबंध में सरल, स्पष्ट और तर्कपूर्ण तथ्यों को सुनने तथा समझने के लिये तैयार ही नहीं होते।

‘प्रकृति द्वारा रोगोपशमन’ शब्दों का प्रयोग उस आरोग्य-दायिनी शक्ति का द्योतन करने के लिए किया जाता है, जो प्रत्येक जीवित प्राणी के शरीर में अन्तर्निहित है। न तो यह कुछ वादों का संग्रह मात्र है और न ऐसा कोई खब्त ही है, जो प्रचलित हो गया है। यह तो उसी समय से व्यवहार में आ रहा है, जबसे इस पृथ्वी पर जीवन का आरंभ हुआ। प्राचीन काल में आरोग्य-प्राप्ति का एकमात्र उपचार समझकर ही इसका आश्रय लिया जाता था; पर सभ्यता और तथाकथित विज्ञान के आगमन से इसका परित्याग कर दिया गया।

आधारभूत सिद्धांत

आरोग्य-लाभ की प्राकृतिक प्रणाली का अर्थ भलीभांति समझने के लिए इसके आधारभूत सिद्धांतों को मन में अच्छी तरह बैठा लेना आवश्यक है। शरीर अपनी स्वच्छता, पुनर्निर्माण और क्षति-पूर्ति-जैसी कुछ प्रक्रियाओं द्वारा प्राकृतिक रूप में स्वास्थ्य-प्राप्ति का निरंतर प्रयत्न करता रहता है। घावों को भरकर और टूटी हुई अस्थि को जोड़कर प्रकृति अपनी क्षति-पूर्ति की प्रवृति का परिचय स्पष्ट रूप से दे देती है। जिस शक्ति के द्वारा सब पदार्थों का नियमन होता है, वह सर्वदा कार्यरत रहती है और उसके अभाव में जीवन का अस्तित्व क्षणभर भी स्थिर न हीं रह सकता। यह मानव शरीर में ही नहीं, बल्कि पृथ्वी पर विद्यमान हर एक पदार्थ और जीवधारी के अंदर कार्य करती रहती है और हम चाहे जो कुछ करें, सोचें या विश्वास रखें, यह अपना काम बराबर करती जाती है।

यह पद्धति इस बात की असंदिग्ध रूप से शिक्षा देती है कि शरीर में जो भी विकार या बीमारी होती है, वह वस्तुत: शरीर के प्राकृतिक रूप में आत्म-परिष्कार का प्रयत्न मात्र है। यदि जनता का मस्तिष्क तथाकथित विज्ञान और रोगोत्पत्ति के कारणों के मूल में कीटाणुओं के होने के सिद्धांत से, जिसे बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित किया जाता है और चिकित्सक तथा जनसाधारण भी अनुचित रूप में समझे हुए हैं, अत्यधिक प्रभावित न हो गया होता तो वह प्राकृतिक प्रणाली को स्वीकार कर इससे अवश्य सहायता लेती।

कीटाणु और रोग

इस स्थल पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली कीटाणुओं के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं करती; पर इसका कहना यह है कि वे रोग की उत्पत्ति के कारण ही नहीं होते, जिसके लिये उनको इतना बदनाम किया जाता है। प्राकृतिक प्रणाली के अनुसार रोग के कीटाणु गंदगी और विषाक्त पदार्थ के मौजूद होने पर ही प्रकट होते हैं और बढ़ते हैं। शरीर तब तक किसी संक्रामक रोग से आक्रांत नहीं हो सकता, जबतक उस विशेष रोग के कीटाणुओं के बढऩे योग्य पहले से क्षेत्र तैयार न हो। रोगोत्पत्ति के कारणों के बढऩे योग्य पहले से क्षेत्र तैयार न हो। रोगोत्पत्ति के कारणों के संबंध में प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली का सिद्धांत ज्यादा गहराई तक पहुंचता है। यह इस बात की शिक्षा देता है कि सर्दी, बुखार, सीने या किसी अंग में जकडऩ, सूजन अथवा जलन, ग्रंथिशोथ आदि सभी तीव्र रोग, जिनमें से प्रत्येक पर प्रचलित चिकित्सा-प्रणाली ने एक स्वतंत्र रोग होने का ‘लेबल’ लगा रखा है, एक ही-जैसे हैं अर्थात वे सभी शरीर में गंदगी एकत्र होने और उसके विषाक्त होने के स्वाभाविक परिणाम हैं। उसका यह भी कहना है कि तीव्र रोग विष को प्रभावहीन कर उसे बाहर निकालने के प्रकृति के प्रयत्न का प्रकट चिन्ह है। यदि उसे निकालना संभव न हुआ तो प्रकृति उसे एक जगह अलग कर देने को प्रयत्न करती है, जिससे वह हानिकर न हो।

प्रकृति की सहायता

प्रकृति की इस शक्ति के साथ मिलकर कार्य करना या उसके विरूद्ध आचरण करना बहुत कुछ हमारी इच्छा पर निर्भर है; पर यदि इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रकृति के साथ मिलकर काम करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होगा, इसलिए उपचार संबंधी जो प्रणाली काम में लायी जाय उसका शरीर-विज्ञान के सिद्धांत की दृढ़ नींव पर टिकना आवश्यक है और जिसे हम शरीर का प्राकृतिक नियम समझ रहे हैं, उसके कार्यान्वित होने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आनी चाहिए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राकृतिक चिकित्सक तीव्र रोगों में, जबकि शारीरिक क्रिया की दृष्टि से शरीर को पूर्ण विश्राम की जरूरत मालूम होती है, खाने से परहेज कराते हैं और जीर्ण रोगों में विकार को बाहर निकालने के लिए प्रकृति को सहायता देने के विचार से आवश्यकता के अनुसार या तो उपवास कराते हैं या केवल फल अथवा शाक का रस देकर आंशिक उपवास कराते हैं।

सबसे बड़ी प्रयोगशाला

हमें यह समझकर कि नीरोग करने की शक्ति उपचार में है, कभी अपने को भुलावे में नहीं रखना चाहिए। आरोग्यता पर हमेशा प्रकृति का विशेषाधिकार रहता है। शरीर की निर्बलता या विकार दूर करने में प्रकृति को सहायता पहुंचाने के लिए हमें बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाओं में प्रयोगात्मक अनुसंधान-केन्द्रों या दवाएं तैयार करने के लिए व्यापारिक ढंग़ पर चलाये जाने वाले कारखानों की जरूरत नहीं प्रतीत होती। प्रकृति ने इस शरीर को सबसे बड़ी प्रयोगशाला के रूप में तैयार किया है, जिसमें रासायनिक प्रक्रियाएं इतने ऊंचे शिखर पर पहुंची हुई है कि हमारी दृष्टि वहां पहुंचने में सर्वथा असमर्थ हो जाती है और जिसमें रक्षणात्मक क्षमता के साधन सर्वदा उचित नियंत्रण में रहते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा-प्रणाली इस मत का प्रचार करती है कि रोग का सिर्फ एक कारण होता है। यह जीवन-यापन और आरोग्य-लाभ के लिए जिस ढंग़ का प्रतिपादन करती है, वह वैज्ञानिक होने के साथ ही विवेकपूर्ण एवं सरल भी है और स्वास्थ्य-लाभ के लिए जिसका अर्थ मस्तिष्क तथा शरीर का एक होकर या अखंड रूप में रहना है-स्वयं अपने में और प्राकृतिक शक्तियों के साथ सामंजस्य होना आवश्यक बतलाती है।

डॉ. श्री विमल कुमारजी मोदी, एम. डी., एन. डी

मिट्टी की पट्टी तैयार करने की विधि- भुरभुरी चिकनी मिट्टी या काली मिट्टी किसी अच्छे स्थान से लेकर उसे कूटकर एक-दो दिन धूप में सुखा दे। कंकड़-पत्थर निकालकर साफ कर लें। इसे कूट-पीसकर छानकर बारह घंटे तक शुद्ध पानी में भिंगो दे। बारह घंटे के बाद लकड़ी की करणी (पलटा)-से अच्छी तरह गूंदकर मक्खन की तरह मुलायम कर ले। मिट्टी को इतना ही गीला रखे कि वह बहे नहीं (आटे के ढ़ीलेपन से थोड़ी कड़ी रखनी चाहिए)। मिट्टी की पट्टी के लिए खादी का मोटा एवं सछिद्र कपड़ा अथवा जूट का टाट (पल्ली) काम में ले। अलग-अलग अंगों के अनुसार बने सांचे (ट्रे)-में लकड़ी के पलटे से मिट्टी को रखकर आधा इंच मोटी पट्टी बनावे। सांचा नहीं हो तो पत्थर की शिला या लकड़ी के चौकोर पाटे (चौकी)-पर रखकर पट्टी बनावे।

इस पट्टी को पेट, रीढ़, सिर आदि पर सीधे संपर्क में रखे। जिन रोगियों को असुविधा हो तो सांचे में नीचे खादी का सछिद्र कपड़ा या टाटकी एक तह बिछाकर उस पर मिट्टी की पट्टी बनाकर चारों ओर से पैक करके रखे। रोगी के अंग पर समतल तहवाला हिस्सा रखे। पट्टी रखने के बाद ऊपर से ऊनी वस्त्र या मोटे कपड़े से ढ़क दे। प्रत्येक रोगी का मिट्टी-पट्टी वाला वस्त्र अलग-अलग रखे। एक बार काम में ली हुई मिट्टी को दोबारा काम में नहीं ले। ठंडी मिट्टी की पट्टी देने से पूर्व उस अंग को सेंक द्वारा किञिचत गरम कर ले। दुर्बल रोगी, श्वास रोग, दमा, जुकाम, तीव्र दर्द, साइटिका, आर्थराइटिस, गठिया, आमवात, गर्भावस्था, बच्चों को यह प्रयोग यदि अरुचिकर एवं असुविधाजनक लगे तो नहीं करावे।

अंगों के अनुसार अलग-अलग पट्टी बनाये

(अ) रीढ़ की मिट्टी- पट्टी-डेढ़ फीट लंबी एवं तीन इंच चौड़ी मिट्टी की पट्टी बनाकर ग्रीवा-कशेरूका से कटिकशेरूकातक रखे।

(ब) सिर की मिट्टी-पट्टी- 8-10 इंच लंबी, 4 इंच चौड़ी, आधा इंच मोटी बनाकर आंखों पर रखे।

(स) कान की मिट्टी-पट्टी- कानों में रूई लगाकर कान पर गोलाकार मिट्टी की पट्टी या लेप कर सकते हैं।

(द) कान की मिट्टी-पट्टी-कानों में रूई लगाकर कान पर गोलाकार मिट्टी की पट्टी या लेप कर सकते हैं।

(य) पेट की मिट्टी-पट्टी- एक फुट लंबी, 6-8 इंच चौड़ी, आधा इंच मोटी पट्टी बनाकर नाभि से लेकर नीचे तक, मध्य उदर पर रखनी चाहिए।

रीढ़, सिर तथा पेट तीनों पर एक साथ मिट्टी की पट्टी रखने से शिर:शूल (सिर दर्द), हाई ब्लड प्रेशर, तेज बुखार, मूच्र्छा, अनिद्रा, नपुंसकता, मस्तिष्क ज्वर, स्नायु-दौर्बल्य, अवसाद, तनाव, मूत्र रोग इत्यादि में लाभ होता है। आंख पर मिट्टी-पट्टी रखने से आंखों के समस्त रोग, जलन, सूजन, दृष्टि-दोष दूर होते हैं। गले की सूजन, टांसिलाइटिस, स्वर यंत्र की सूजन (लैरिंजाइटिस) आदि में स्थानीय वाष्प देकर गरम मिट्टी की पुल्टिस बांधे।

पेट, अमाशय, यकृत, प्लीहा, कमर, जननांग, गुदाद्वार, अग्राशय आदि अंगों पर मिट्टी की पट्टी रखने से उनसे संबंधित रोगों में लाभ मिलता है। पेट के प्रत्येक रोग में पेडू पर मिट्टी की पट्टी अवश्य देनी चाहिए।

 

आहार एवं स्वास्थ

 

हम दिनभर में जो कुछ भी सेवन करते अर्थात खाते पीते हैं, वह आहार कहलाता है। आहार एवं स्वास्थ का घनिष्ठ संबंध है। प्रतिदिन के आहार द्वारा शरीर की विकास तथा क्रियाओं के संपादन-हेतु आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है। किंतु हममें से अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते की हमें कैसा आहार लेना चाहिये। वास्तव में हमें ज्ञान ही नहीं है कि हमारे शरीर को किन आवश्यक तत्वों की आवश्यकता है तथा वे तत्व हमें किन स्त्रोतों से प्राप्त हो सकते हैं। उदाहरण के अधिक शारीरिक श्रम करनेवाले व्यक्तियों का अधिक पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत हलका शारीरिक श्रम करनेवाले व्यक्तियों को हल्का तथा सुपाच्य भोजन करना चाहिये। वस्तुत: आहार ऐसा होना चाहिये जिससे शरीर स्वस्थ, पुष्ट तथा नीरोगी रहे।

आहार कैसा हो?

विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पोषक तत्व समाहित होते हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों को कार्यशील बनाये रखने के लिये आवश्यक होते हैं। उदाहरण के लिये दूध में विटामिन ‘ए’ प्रचुर में होता है, जो शरीर के रोगों से रक्षा करने और अच्छी दृष्टि के लिये आवश्यक है। इसकी कमी से शरीर रोगी तथा दृष्टि कमजोर हो सकती है। अत: हमारे भोजन में इन पोषक तत्वों- जैसे प्रोटीन कार्बोहाइड्रेट, विटामिन तथा खनिज-तत्वों आदि को संतुलित मात्रा होनी चाहिये।

आहार-संबंधी कुछ आवश्यक नियम

  • सदैव अपने कार्य के अनुसार आहार लेना चाहिये। यदि आपको कठोर शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है तो अधिक पौष्टिक आहार लेवें। यदि आप हल्का शारीरिक परिश्रम करते हैं तो हल्का सुपाच्य आहार लेवें।
  • प्रतिदिन निश्चित समय पर ही भोजन करना चाहिये।
  • भोजन के मुंह में डालते ही निगलें नहीं, बल्कि खूब चबाकर खायें, इससे भोजन शीघ्र पचता है।
  • भोजन करने में शीघ्रता न करें और न ही बातों में व्यस्त रहें।
  • अधिक मिर्च-मसालों से युक्त तथा चटपटे और तले हुए खाद्य पदार्थ न खायें। इससे पाचन-तंत्र के रोग-विकार उत्पन्न होते हैं।
  • आहार ग्रहण करने के पश्चात कुछ देर आराम अवश्य करें।
  • भोजन के मध्य अथवा तुरंत बाद पानी न पीयें। उचित तो यही है कि भोजन करने के कुछ देर बाद पानी पिया जाय, किंतु यदि आवश्यकता हो तो खाने के बाद बहुत कम मात्रा में पानी पी लेवें और इसके बाद कुछ देर ठहरकर ही पानी पीयें।
  • ध्यान रखें,कोई भी खाद्य पदार्थ बहुत गरम या बहुत ठंडा न खायें और न ही गरम खाने के साथ या बाद में ठंडा पानी पीयें।
  • आहार लेते समय अपना मन मस्तिष्क चिन्तामुक्त रखें।
  • भोजन के बाद पाचक चूर्ण या ऐसा ही कोई भी अन्य औषध-पदार्थ सेवन करने की आदत कभी न डालें। इससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है।
  • रात्रि को सोते समय यदि संभव हो तो गरम दूध का सेवन करें।
  • भोजनोपरांत यदि फलों का सेवन किया जाय तो यह केवल शक्तिवद्र्धक होता है, बल्कि इससे भोजन शीघ्र पच भी जाता है।
  • जितनी भूख हो, उतना ही भोजन करें। स्वादिष्ठ पकवान अधिक मात्रा में खाने का लालच अन्तत: अहितकर होता है।
  • रात्रि के समय दही या लस्सी सेवन न करें।

स्वच्छता एवं स्वास्थ

हम अपने स्वास्थ के विषय चाहे दिन-रात सोचते रहें तथा आहार-संबंधी नियमों का पालन करते रहें अथवा अपने स्वास्थ को बनाये रखने के लिये कितने ही पौष्टिक पदार्थों का सेवन करते रहें, क्योंकि स्वच्छता से ही स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकती है।

स्वच्छता से हमारा तात्पर्य केवल शारीरिक स्वच्छता से नहीं वरन अपने घर और आस-पास के वातावरण से भी है। इस विषय में आपको निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये-

  • प्रतिदिन ताजे पानी से स्नान करे, तत्पश्चात त्वचा को तौलिये से भली-भांति रगड़कर सुखायें।
  • दिन में कम-से-कम दो बार मुंह एवं दांतों की सफाई अवश्य करें।
  • सदैव साफ-सुथरे वस्त्र धारण करें।
  • पीने का एवं अन्य खाद्य पदार्थ भी स्वच्छ होने चाहिये, क्योंकि अस्वच्छता से रोगों की उत्पत्ति होती है।
  • आपका घर तथा दफ्तर साफ-सुथरा, हवादार एवं प्रकाशयुक्त होना चाहिये।
  • सामान्य वस्त्रों की भांति सदैव स्वच्छ अन्तर्वस्त्र ही धारण करें तथा नियमपूर्वक बदलें।
  • वस्त्रों की भांति विस्तर भी साफ होना चाहिये। विस्तर की चादर को प्रतिदिन बदलें और अन्य वस्त्रों को धूप में सुखा लेवें।
  • अपने पहनने के वस्त्र, तौलिया, कंघा आदि वस्तुओं के विषय में भी पूरा-पूरा ध्यान रखे। ये चीजें न तो किसी को प्रयोग में लाने दें और न ही किसी दूसरे व्यक्ति की ऐसी चीजें प्रयोग में लायें। इससे रोग के जीवाणु फैलते हैं।
  • ऐसे खाद्य पदार्थों का सेवन कदापि न करें जो गंदे या वासी हों अथवा जिनपर मक्खियां आदि बैठ चुकी हों।
  • किसी की जूठी चीज या जूठे बरतन का प्रयोग न करें और न ही किसी अन्य व्यक्ति को अपने जूठे पदार्थ अथवा बरतन का प्रयोग करने दें। अपने परिवार के सदस्य के बीच भी इस नियम का पालन करें तथा आरंभ से ही बच्चों अलग-अलग खाने के आदत डालें।
  • रात्रि को सोने से पहले अपने दांतों एवं मुंह की अच्छी तरह से सफाई करें और प्रात: उठनेपर भी यही काम करें।
  • खांसी, जुकाम आदि संक्रामक रोगों में खांसते अथवा छींकते समय अपने नाक एवं मुंह के आगे रूमाल रखें, ताकि रोग के जीवाणु फैलने न पायें।
  • यदि घर में कोई रोगी हो अथवा आपको रोगी के पास रहना पड़े तो रोग जैसा भी हो, उससे सुरक्षित रहने तथा स्वच्छता के नियमों का पालन करना अनिवार्य है।
  • बहुत-से व्यक्तियों जगह-जगह थूकते रहने की आदत होती है, यह ठीक नहीं है। यदि आप में भी यह आदत है तो इसे त्याग देवें।
  • शारीरिक सफाई करते समय बगलों एवं गुप्तेन्द्रियों की सफाई करना न भूलें।
  • हाथ-पांव के नाखून बढ़ जाने से इनमें गंदगी भर जाती है, इसलिये नाखून बढऩे न दें, समय-समय पर उनका छेदन करते रहें।
  • मुंह द्वारा नाखून काटते रहना, उँगली या अंगूठा चूसना, नाक-कान में उँगली डालना आदि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं। अत: इन्हें त्याग देवें।
  • मुंह द्वारा सांस नहीं लेनी चाहिये, यथासंभव नाकद्वारा ही सांस लेवें।
  • रात्रि को सोते समय मुंह ढ़हकर न सोयें।

(2) जल चिकित्सा के उपयोग

जल-चिकित्सा की विधियां- सामान्यत: हमारे शरीर में 55 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक जल होता है। अत: जल का महत्व स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक है–

(अ) गरम-ठंडा सेंक- सभी तरह के दर्द एवं सूजन में इसके प्रयोग से तुरंत लाभ मिलता है। सर्वप्रथम एक पात्र में खूब गरम पानी तथा दूसरे पात्र में खूब ठंडा (बर्फीला) पानी ले। तीन रोंयेदार तौलिये ले। गर्म पानी में एक तौलिये के दोनों किनारे पकड़कर मध्य से डुबोकर भिगों-निचोड़कर पीडि़त अंग पर रखे। ऊपर सूखा तौलिया ढक दे। तीन मिनट के बाद दूसरे तौलिये को ठंडे पानी में भिगों-निचोड़कर दो मिनट तक पीडि़त अंग पर रखे। यह क्रम कम-से-कम पांच बार करे। सेंक हमेशा गर्म से प्रारंभ करके ठंडे पर समाप्त करना चाहिए। समाप्ति के बाद सूखे तौलिये से शुष्क घर्षण देकर स्थानीय लपेट बांधकर आराम कराये। गर्म-ठंडे सेंक से रक्त-वाहिनियां संकुचित प्रसरित होती हैं। विजातीय पदार्थ बाहर निकलते हैं। पेट के रोगों में गर्म-ठंडा सेंक एक मुख्य उपचार है। इससे चमत्कारिक लाभ मिलता है।

(ब) मेहन स्नान (जननेन्द्रिय प्रक्षालन)- इस स्नान के लिए बैठने के लिए ऐसा स्टूल हो जो सामने की ओर से अद्र्धचन्द्राकार में कटा हो ताकि उसपर बैठकर जननेन्द्रिय पर पानी डालते समय नितंब या अन्य अंग पर पानी का स्पर्श नहीं हो सके। स्टूल के ठीक सामने उसकी ऊंचाई से एक इंच नीचे ठंड पानी से भरा हुआ बड़ा पात्र (बेसिन) या चौड़े मुंह वाली बालटी रखनी चाहिए।

(स) कटि-स्नान- इसके लिए एक विशेष प्रकार का कुर्सीनुमा टब (लोहा, फाइबर, ग्लास या प्लास्टिक) लेकर उसमें पानी भरकर रोगी को बिठा देते हैं। रोगी के पैर टब से बाहर एक पट्टे पर रखवा दिये जाते हैं। टब का पानी कमर से लेकर जांघों के बीच वाले भाग को डुबोकर रखता है। इस दौरान रोगी रोंयेदार तौलिये से नाभि, पेडू, नितम्ब तथा जांघों को पानी के अंदर रगड़ते हुए मालिश करे।

रोगी निर्बल हो तो पैरों को चौड़े मुंह के गर्म पानी के पात्र में रखवाये एवं गर्दन तक कम्बल या गर्म कपड़े से ढक दे। ठंडे पानी का तापमान 50 डिग्री फॉरेनहाइट से 70 डिग्री फॉरेनहाइट तक रखना चाहिए। प्रारंभ में सहने योग्य पानी रखे। थोड़ी देर बाद बर्फ का पानी डालकर पानी का तापमान कम करते जाय। टब में पानी उतना ही रखे कि उसमें रोगी के बैठने पर नाभि तक आ जाये। कटि-स्नान से पूर्व तथा कटि-स्नान के दौरान शरीर का कोई अन्य अंग नहीं भीगना चाहिए। भोजन एवं कटि-स्नान के मध्य तथा कटि-स्नान एवं साधारण स्नान के मध्य एक घंटे का अंतर रखना आवश्यक है। कटि-स्नान रोगी की सहनशक्ति, स्थिति के अनुसार तीन मिनट से प्रारंभ करके बीस मिनट तक देना चाहिए।

कम ठंडे पानी का कटि-स्नान अधिक देर तक देने की अपेक्षा अधिक ठंडे पानी का कटि-स्नान थोड़ी देर तक देना ज्यादा लाभदायक होता है। ठंडे कटि-स्नान से पूर्व तािा बाद में सूखे तौलिये से घर्षण-स्नान करके शरीर को किंचित गर्म कर लेना चाहिए, जिससे ठंडे पानी का प्रतिकूल असर नहीं पड़े। तीव्र कमर-दर्द, निमोनिया, खांसी, अस्थमा (दमा), साइटिका, गर्भाशय-मूत्राशय-जननेन्द्रिय तथा आंत्र की तीव्र सूजन में कटि-स्नान वर्जित है।

(द) वाष्प-स्नान- वाष्प स्नान के लिए आजकल कई तरह के बने-बनाये यंत्र मिलते हैं। संपूर्ण वाष्प-स्नान के लिए केबिननुमा पेटी होती है, जिसमें वाष्प निकलने के लिए छोटे-छोटे छिद्र तथा ट्यूब लगे होते हैं। इन छिद्रों का संबंध तांबे की या लोहे की पतली पाइप द्वारा बॉयलर (वाष्प-उत्पादक यंत्र) से होता है। बॉयलर चलाने पर वाष्प केबिन में या वाष्प-कक्ष में भर जाती है।

विधि- रोगी का सारा शरीर केबिन में होता है। गर्दन के ऊपर का हिस्सा बाहर होता है। वाष्प-स्नान से पूर्व सिर, चेहा तथा गले को ठंडे पानी से धोकर सिर पर गीली तौलिया रखे। रोगी को नींबू, पानी, शहीद या संतरे का रस 100-200 मिली. तक पिला दे। पंद्रह-पंद्रह मिनट तक वाष्प-स्नान  ले। इस दौरान अंग-प्रत्यंग की मालिश करनी चाहिए, जिससे विजातीय तत्व घुलकर त्वचा से बाहर निकलते हैं। वाष्प-स्नान के बाद ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए।

घर पर वाष्प-स्नान लेने के लिए बंद कमरे में मंूज की चारपाई पर रोगी को लिटाकर कंबल से चारों ओर ढ़क दे तथा खाट के नीचे दो पतीले में पानी भरकर उबाले। एक पात्र पैरों की तरफ और दूसरा पीठ के नीचे रखे। रोगी करवट बदलकर सारे शरीर पर वाष्प-स्नान ले।

(य) स्थानीय वाष्प-स्नान- आजकल रेडीमेड फेशियल सोना बाथ-जैसे यंत्र बाजार में मिलते हैं। इसके अलावा घर पर प्रेशर-कुकर की सीटी हटाकर उसमें सात-दस फुट लंबी पारदर्शक रबड़ की पाइप लगाये। प्रेशर-कुकर को आधा पानी से भरकर गर्म करे। भाप बनने पर किसी कपड़े से पाइप के दूसरे छोर को पकड़कर अलग-अलग अंगों पर स्थानीय वाष्प दे। 10-15 मिनट तक स्थानीय वाष्प ले। इसके तुरंत बाद ठंडे पानी में भिगो-निचोड़कर तेजी से घर्षण-स्नान देकर सूती-ऊन लपेट कर बांधे।

(र) गर्म-पाद-स्नान- दो टब या बालटी लें। उनमें गर्म पानी भरे। फिर सिर, चेहरा, गला धोकर सिर पर गीली तौलिया रखकर स्टूल पर बैठ जाये। दोनों पैरों को बालटी में रखे। गर्दन से लेकर टब तक के हिस्से को गर्म कंबल से इस तरह ढक दे कि भाप बाहर नहीं निकले। जब तक रोगी को पसीना नहीं आये, तब तक गर्म-पाद-स्नान दे। पसीना नहीं आये तो गर्म पानी पिलाये। टब में पानी घुटनों तक रखे। 10-15 मिनट में पसीना आने लगता है। पसीना आने के बाद ठंडा स्नान, ठंडा घर्षण-स्नान अथवा स्पंज बाथ देकर आराम कराये। गर्म-पाद-स्नान से रक्त प्रवाह पैरो की तरफ नीचे आता है। फलत: यकृत और गुर्दे सक्रिय होकर दूषित विषों को तेजी से निकालने लगते हैं।

(ल) सूखा घर्षण- एक अच्छी किस्म का रोंयेदार सूखा तौलिया लेकर हल्के हाथ से सर्वप्रथम बायें हाथ पर फिर क्रमश: दायें हाथ पर, दायें पैर पर, बायें पैर, पेडू, छाती, जंघा, पीठ, नितम्ब आदि समस्त अंगों का घर्षण करे। इससे रक्त-संचरण तीव्र होकर त्वचा लाल हो जाती है। तत्पश्चात ठंडे पानी से स्नान कराये।

(व) ठंडा स्पंज-स्नान- बर्फ का सादा पानी, ताजा पानी अथवा नीम के पत्तों से युक्त उबला पानी रोगी की स्थिति के अनुसाद तीन रोयेंदार तौलिये पानी में बारी-बारी से भिगोकर-निचोड़कर घर्षण-स्नान करे। सबसे पहले बायां हाथ, दायां हाथ, दायां पैर, बायां पैर, पेडू, छाती, जंघा, पीठ, नितम्ब, गुदाद्वार, जननेन्द्रिय आदि अंगों पर क्रमश: घर्षण-मालिश करे। पानी गंदला हो जाने पर बदलते रहे। अंत में सूखे तौलिये से सारे शरीर का सूखा घर्षण करके शरीर को गर्म कर दे और विश्राम कराये।

(श) गीली चादर की लपेट- दो कंबल, एक सूती सफेद चादर, एक पतला कपड़े का टुकड़ा, एक प्लास्टिक की चादर तथ दो तौलिये ले। पलंग या जमीन पर दोनों कंबल बिछा दे। इसके ऊपर सफेद चादर को नीम के पत्तों से युक्त उबले पानी में भिगो-निचोड़कर बिछाये। रोगी का सिर, चेहरे ठंडे पानी से धो-पोंछकर एक गिलास गर्म पानी पिलाये तथा सिर पर गीली तौलिया बांधे। लंगोट या कौपीन बांधकर रोगी को निर्वस्त्र लिटा दे। पहले हाथों को बाहर निकालकर सूती गीली चादर में धड़ को लपेट दे, फिर दोनों पैरों को अच्छी तरह लपेट कर हाथों एवं गर्दन को भी लपेट दे ताकि सारा शरीर गीली चादर के संपर्क में ही रहे। ऊपर से कंबल को भली-भांति लपेट दे।

फिर प्लास्टिक की चादर भी लपेटकर ऊपर कंबल लपेट सकते हैं। (यदि पसीना नहीं आ रहा हो तो) पांच से पंद्रह मिनट में शरीर से गर्मी निकलकर पसीना आने लगता है। त्वचा सक्रिय होकर रक्त-संचार तीव्र होने लगता है। इस उपचार से यकृत, प्लीहा, अग्राशय, पीलिया, पेट के रोग ठीक होते हैं। गीली चादर की लपेट रोगी की शारीरिक स्थिति के अनुसार 15-30 मिनट तक दे सकते हैं। गीली चादर लपेट के बाद सामान्य स्नान कराये। लपेट के दौरान सिर-दर्द, चक्कर, मूर्छा के लक्षण दिखे तो उपचार बंद कर दे। पाण्डु (रक्तालपता), दुर्बलता, हृदय-रोग, अस्थमा, निमोनिया, गठिया आदि स्थिति में गीली चादर-लपेट नहीं देना चाहिए।

(श) पेट की लपेट- छ: फुट लंबी एवं बारह इंच चौड़ी सूती कपड़े एवं ऊनी कपड़े की पट्टी बनाये। ऊनी पट्टी की दूसरे सिरे पर डोरी बंधी हो। सर्वप्रथम पेट पर सेंक या स्थानीय भाप देकर उसे गर्म करे एवं सूती कपड़े को पानी में भिगो-निचोड़कर तीन बार पेट पर लपेट दे। सूती कपड़े को ठंड पानी में भिगोये। इसके ऊपर सूखी ऊनी लपेट इस तरह से बांधे कि नीचे की सूती लपेट नहीं दिखे और वायु अवरूद्ध हो जाये। लपेट को इतना ढीला नहीं छोड़े कि वायु अंदन प्रवेश करके क्रियाहीनता उत्पन्न कर दे। इतनी बांधे भी नहीं कि रक्त प्रवाह रूककर रोगी को बेचैनी होने लगे। पिण्डलियों के लिए छ: फुट लंबी एवं चा इंच चौड़ी लपेट प्रयोग में लानी चाहिए।

 

यज्ञोपवीत से स्वास्थ-लाभ

यज्ञोपवीत भारतीय संस्कृति का मौलिक सूत्र है। इसका संबंध हमारे आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक जीवन से है। यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ को ‘यज्ञसूत्र’ तथा ‘ब्रम्हासूत्र’ भी कहा जाता है। बायें कन्धे पर स्थित जनेऊ देवभावकी तथा दायें कन्धे पर  स्थित पितृभावकी द्योतक है। मनुष्यत्यसे देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है।

यज्ञोपवीत का हमारे स्वास्थ से बहुत गहरा संबंध है। हृदय आंतो तथा फेफड़ों की क्रियाओं पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। लंदन के ‘क्वीन एलिजबेथ चिल्ड्रेन हॉस्पिटल’ के भारतीय मूल के डॉ. एस. आर. सक्सेना के अनुसार हिंदुओं द्वारा मल-मूत्र त्याग के समय कान पर जेनुऊ लपटने का वैज्ञानिक आधार है। ऐसा करने से आंतो की आकर्षण शक्ति बढ़ती है, जिसमें कब्ज दूर होती है तथा मूत्राशय की मांसपेशियों का संकोच बेग के साथ होता है। कान की पास की नसे दाबने से बढ़ हुए रक्तचाप को  नियत्रिंत तथा कष्ट से होनेवाली श्वास क्रिया को सामान्य किया जा सकता है।

कान पर लपेटी गयी जनेऊ मल-मूत्र त्याग के बाद अशुद्ध हाथों को तुरंत साफ करने हेतु प्ररित करती है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद बार-बार हाथ-पैर तथा मुख की सफाई करते रहने से बहुत से संक्रामक रोग नहीं होते। योग शास्त्रों में स्मरण शक्ति तथा नेत्र-ज्योति बढ़ाने के लिये ‘कर्णपीडासन’ का बहुत महत्व है। इस आसन में घुटनों द्वारा कानपर दबाब डाला जाता है। कान पर कसकर जनेऊ लपटने से ‘कर्णपीडासन’ के सभी लाभों की प्राप्ति होती है।

इटली में ‘बारी विश्वविद्यालय’ के न्यूरोसर्जन प्रो.एनारीका पिरोजेली ने यह सिद्ध किया है कि कान के मूल में चारों तरफ दबाब डालने से हृदय मजबूत होता है। पिराजेलीने हिंदुओं द्वारा कान पर लपेटी गयी जनेऊ को हृदय रोगों से बचाने वाली ढ़ाल की संज्ञा दी है।

वैद्य बालकृष्ण गोस्वामी

(३) सूर्य-स्नान  (धूप-स्नान) का  उपयोग

प्राकृतिक चिकित्सा में सूर्य-स्नान का विशेष महत्व है। इसके सेवन से शरीर में विटामिन-‘डी’ की प्राप्ति होती है।

स्थान का चुनाव- सूर्य-स्नान के लिए एकांत स्थान होना चाहिए, जैसे-मकान की छत, दीवार की ओट आदि।

विधि- सूर्य-स्नान के समय शरीर से कपड़े हटा देने चाहिए ताकि सूर्य की किरणें सीधे शरीर पर पड़ें।

सर्वप्रथम धूप में चित लेट जाए। बाद में पेट के बल लेटकर सूर्य-स्नान लेना आरामदायक रहता है। सूर्य-स्नान के समय धूप सौम्य होनी चाहिए तथा सिर पर एक सूखा तौलिया रखें। यदि तेज धूप हो तो सिर पर गीला कपड़ा रखना आवश्यक है। धूप-स्नान लेते समय आंखें बंद रखनी चाहिए अन्यथा दृष्टि कमजोर होती है।

अवधि- सूर्य-स्नान की समय-सीमा रोगी की अवस्था, रोग की तीव्रता-जीर्णता तथा ऋतु में 10-30 मिनट तक शीत-ऋतु में 20-60 मिनट तक सूर्य-स्नान लें।

ऋतु काल- ग्रीष्म-ऋतु में प्रात: साढ़े सात से आठ बजे के पूर्व सूर्य-स्नान लें एवं सायंकाल में साढ़े पाच से छ: बजे के पश्चात सूर्य-स्नान लेना उपयुक्त रहता है। शीत-ऋतु में प्रात: नौ से साढ़े नौ के पहले एवं सायंकाल में चार बजे से पांच बजे के बाद सूर्य-स्नान लेना चाहिए। इस तरह से संक्षेप में प्राकृतिक चिकित्सा की विधियों-प्रविधियों के बारे समझाया गया है।

फिर भी सावधानीपूर्वक रोग एवं रोगी की स्थिति, अवस्था, देश, काल, बल आदि को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा-लाभ लें अथवा किसी योग्य प्राकृतिक चिकित्सक की देख-रेख में उपचार कराना चाहिए।

(३)  प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास का महत्व

पेट के रोगों में उपवास (आकाश)- चिकित्सा का सर्वाधिक महत्व है। रोगी की अवस्था के अनुसार अर्ध उपवास, एकाहार रसोपवास, फल उपवास, दुग्ध-उपवास, म_ा-उपवास कराया जाता है। पूर्ण उपवास में सादे जल के अलावा कुछ नहीं दिया जाता है।

उपवास विधि- मानसिक रूप से स्वयं को तैयार करें तथा शारीरिक दृष्टि से प्रारंभ में दो दिन भोजन की मात्रा आधी कर दें। सब्जियां तथा फल बढ़ा दें। एक-दो दिन एक समय केवल रोटी, सब्जी, सलाद लें तथा दूसरे समय केवल एक फल लें। एक से तीन दिन फलाहार, फिर एक से तीन दिन रसाहार, पुन: एक से तीन दिन नींबू का पानी, शहद पर रहें। रोगी की शारीरिक, मानसिक अवस्था को देखते हुए दो-तीन दिन तक संतरे के रस पर रहकर सीधे उपवास पर आ जाये।

उपवास के दौरान मल सूख जाता है। उपवास के पहले अद्र्धशंख-प्रक्षालन या नाशपाती, आंवला, करेले के रस से पेट को पूर्ण साफ कर लेना चाहिए। उपवास के दौरान एनिमा, मिट्टी-पट्टी, मालिश, धूप-स्नान, टहलना, आसन, प्राणायाम, कुण्जल आदि चिकित्सा रोग के अनुसार लें। इस दौरान एक घंटे के अंतराल पर एक गिलास पानी में एक नींबू निचोड़कर पीते रहें।

उपवास तोडऩे की विधि- लंबे उपवास में एक-दो दिन कुछ परेशानी अवश्य होती है, फिर कोई कठिनाई नहीं होती। लंबा उपवास करना जितना सरल है, तोडऩा उससे ज्यादा कठिन है। यदि वैज्ञानिक ढ़ंग से उपवास नहीं तोड़ा जाये तो अनिष्ट होकर मृत्यु भी हो सकती है। उपवास तोड़ते समय शीघ्र पाचक फलों के रस में पानी मिलाकर लें, ताकि पाचन-यंत्र भोजन ग्रहण करने की आदत डाल सके। संतरे के 125 मिली. रस में 100 मिली. जल मिलाकर धीरे-धीरे चूसकर पीयें। दो-तीन घंटे के अंतर से जल-मिश्रित रस लेते रहे। संतरा उपलब्ध नहीं हो तो एक नींबू का रस तथा दो चम्मच शहद मं एक गिलास पानी मिलाकर पीयें अथवा बीस-तीस मुनक्का, किशमिश भिगो-मसल-छानकर पानी मिलाकर लें। दूसरे दिन से रस या सब्जियों के सूप (परवल, लौकी टिण्डा, तोरई, टमाटर आदि)-की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाते जाये तथा क्रमश: उबली सब्जी, फल, चपाती की पपड़ी, पतला दलिया लें। संतरा, पपीता, अंगूर, टमाटर, सेब, केला आदि उत्तम फल हैं। जितने दिन उपवास करें कम-से-कम उतने ही दिन सामान्य आहार पर आने में लगाना चाहिए। उपवास-काल एवं उपवास तोडऩे के समय पर्याप्त मात्रा में पानी पीना अत्यंत आवश्यक है। पानी नहीं पीने से विजातीय तत्व बाहर नहीं निकाल पाते एवं तरह-तरह के उपद्रव होने लगते हैं।

निषेध- गर्भिणी स्त्री, दुग्धावस्था (बच्चा, दूध पीता हो ऐसी स्त्री), कमजोर, बालक, ह्दय-रोगी, मधुमेह, राजयक्ष्मा (टीबी)-का रोगी, कृश व्यक्ति, सुकोमल प्रकृति के व्यक्ति का लंबे उपवास नहीं करने चाहिए।

लाभ- पेट के समस्त रोग-दमा, गठिया, आमवात, संधिवात, त्वक विकार, चर्म रोग, मोटापा आदि जीर्ण रोगों में उपवास एक सर्वोत्तम निसर्गोपचार है।

दीर्घ उपवास हमेशा किसी विशेषज्ञ के निर्देशन में ही करना चाहिए।

(साभार: कल्याण आरोग्य अंक)

 

डॉ. श्रीशरदचन्द्रजी त्रिवेदी, एम. डी.

 

principles of naturopathy


Diseases arise due to the accumulation of contaminated, toxic and foreign substances in the body. The main place of accumulation of these substances is the stomach. That's why if the stomach is healthy then we are also healthy and if the stomach is sick then we are sick. The food we take should have 75 percent alkaline and 25 percent acidic. If more than 25 percent acidic food is taken in the food, then the blood becomes more acidic, due to which it becomes contaminated. The body tries to remove this contaminant from inside through sweat and urine. If it does not come out then the body becomes diseased. In this way, the diet (food item) which cannot be digested means that it cannot be converted into juice and blood, it is a foreign substance for the body. He should be thrown out. Even if some part of it remains in the body, it spreads in the whole body through blood circulation and causes contaminated disorders and diseases. Through naturopathy, the body is made healthy by removing these foreign substances.
In naturopathy, treatment is done by Panchmahabhoot – earth, water, fire, air and sky. Treatment is done by soil, water, air (enema), sunlight, fasting and fruits, vegetables without medicine. Special attention is paid to diet, routine, routine, night routine and maximum effort is made to stay close to nature.

Use of soil, water, sunlight and fasting in naturopathy
1. Use of mud therapy
Soil (Earth element) predominates in this five-spiritual body. Soil removes toxins, disorders and foreign substances from our body. It is a strong disinfectant. Soil is the greatest medicine in the world.
Types of mud therapy (a) Walking barefoot on soiled ground - on clean earth, sand, soil, or green sand in the morning and evening, by increasing biography-power gives the ability to fight against many diseases.
(b) Sleeping on a bed of mud- The force of gravity on the body becomes zero by sleeping straight on the earth. Nervous weakness, depression, tension, feelings of ego go away and new energy and prana enters the body. For this, one should sleep on the ground or on the bed by spreading flat sand eight inches to twelve inches thick. In the beginning there is some difficulty, but with practice one gradually gets used to it.
(c) Coat of wet clay all over- First of all, after bringing smooth clay from a good place, cleaning it without pebbles and stones, after grinding it, filter it and soak it in pure water for twelve hours. After that, kneading it like flour, making a butter-like dough, apply half a cm of this soft soil on the whole body. Apply a thick layer on the abdomen, legs, spine, neck, face, genitals and scalp. After this, take sun-bath for a quarter of an hour to an hour. Due to the stretching of the skin due to the drying of the soil, there is exercise and blood-circulation becomes intense and nutrition is received. After drying the soil completely by sun-bath, take a good bath and take rest.
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What is naturopathy?
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Those who have not understood the basic principles of naturopathy, they think that it is just a collection of some khabtas and promises – Bhanumatika's clan has been added by taking a brick somewhere and a stone somewhere and those who follow its principles and preach facts, they are addictions. The reason is that the magic of the word 'science' has worked on the present generation in such a way that people are not ready to listen and understand simple, clear and logical facts regarding the healing natural powers inherent in their body.
The words 'healing by nature' are used to denote the healing power that is inherent in the body of every living being. It is neither just a collection of some promises nor is it just a fad that has become popular. This is being practiced since the time when life started on this earth. In ancient times it was resorted to as the only remedy for recovery; But with the advent of civilization and so-called science, it was abandoned.

fundamentals
To understand the meaning of the natural system of health benefits, it is necessary to have its basic principles well in mind. The body keeps on trying to get healthy in its natural form through some processes like cleanliness, reconstruction and repair. By healing wounds and joining broken bones, nature clearly shows its tendency to compensate. The power by which all things are regulated is always active and in its absence the existence of life cannot remain stable even for a moment. It continues to work not only in the human body, but inside every substance and living being on earth and whatever we do, think or believe, it goes on doing its work equally.
This method teaches unequivocally that whatever disorder or disease occurs in the body, it is actually just an attempt of self-refining in the natural form of the body. If the public mind had not been greatly influenced by so-called science and the theory of germs as the cause of disease, which is greatly exaggerated and improperly understood by physicians and the general public, it would have been natural By accepting the system, she would definitely take help from it.



germs and diseases
It is necessary to make it clear at this point that naturopathy does not deny the existence of germs; But this is to say that they are not the cause of the disease itself, for which they are so maligned. According to the natural system, disease germs appear and grow only when dirt and toxins are present. The body cannot be attacked by any infectious disease until the germs of that particular disease have already prepared an area capable of growing. There should be no pre-prepared area for the causes of disease to grow. Naturopathy's philosophy goes deeper into the causes of disease. It teaches that all acute diseases such as cold, fever, tightness in the chest or any part of the body, swelling or inflammation, adenoiditis, each of which has been 'labeled' by the prevailing medical system as an independent disease, They are the same i.e. they are all the natural result of accumulation of filth in the body and its poisoning. He also says that acute disease is a visible sign of nature's effort to neutralize the poison and expel it. If it is not possible to remove it, then nature tries to separate it at a place, so that it is not harmful.

nature's aid
To act in harmony with or against this force of nature depends much on our will; But if this subject is seriously considered, then it will be better for us to work in harmony with nature, therefore the method of treatment that is employed must be based on a firm foundation of the principle of physiology and which we believe to be the natural state of the body. Understanding the rules, there should be no hindrance in its implementation. For this purpose, naturopaths prescribe abstinence from food in acute diseases, when the body seems to need complete rest from the point of view of physical activity, and with the idea of ​​helping nature to bring out the disorder in chronic diseases. According to the requirement either fasting is done or partial fasting is done by giving only fruit or vegetable juice.
largest laboratory
We should never delude ourselves by thinking that the power to heal lies in the treatment. Health always has the privilege of nature. We do not see the need for experimental research centers in big laboratories or factories run on commercial lines to prepare medicines to help nature in removing body's weakness or disorders. Nature has designed this body as the greatest laboratory, in which the chemical processes have reached such a height that our vision is completely incapable of reaching there, and in which the means of protective capacity are always under proper control.
Naturopathy propagates the idea that there is only one cause of disease. The way it renders for living and health benefits, it is scientific as well as rational and simple, and for health benefits, which means the mind and body to be united or in an unbroken form - itself. It shows that it is necessary to have harmony within ourselves and with the natural forces.
Dr. Shri Vimal Kumarji Modi, M.D., N. D
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Method of preparation of clay strip- Take friable smooth soil or black soil from a good place, grind it and dry it in the sun for a day or two. Remove pebbles and clean them. After grinding it, filter it and soak it in pure water for twelve hours. After 12 hours, knead it well with a wooden spoon (palta) and make it soft like butter. Keep the clay so wet that it does not flow (it should be kept a little tight due to the looseness of the flour). Use thick and porous cloth of khadi or jute sacking (palli) for the clay strip. Make a half-inch-thick strip by placing clay in a tray made according to different organs with a wooden spatula. If there is no mold, make a bandage by placing it on a stone slab or a square wooden post.
Keep this bandage in direct contact on abdomen, spine, head etc. The patients who have discomfort, then spread a layer of porous khadi cloth or tatki at the bottom of the mould, make a clay strip on it and keep it packed from all sides. Keep a flat folded part on the patient's limb. After keeping the bandage, cover it with woolen cloth or thick cloth. Keep the mud-bandage cloth of each patient separately. Do not use the soil once used again. Before giving a strip of cold clay, warm that part a little by using a fomentation. Weak patients, breathing diseases, asthma, cold, acute pain, sciatica, arthritis, gout, rheumatism, pregnancy, children should not do this experiment if they find it distasteful and uncomfortable.
make different bandages according to the organs
(a) Mud-strip of the spine - Make a mud strip one and a half feet long and three inches wide and place it from cervical vertebra to lumbar vertebra.
(b) Make a mud bandage of the head - 8-10 inches long, 4 inches wide, half an inch thick and keep it on the eyes.
(c) Mud-bandage of the ear- By applying cotton in the ears, a circular mud band or paste can be applied on the ear.
(D) Earthen-bandage of the ear- By applying cotton in the ears, a circular earthen band or paste can be applied on the ear.
(e) Stomach mud-bandage- One foot long, 6-8 inches wide, half inch thick, should be made and placed on the middle abdomen from the navel to the bottom.
Placing a clay strip simultaneously on the spine, head and stomach


how is the diet
Different types of foods contain different types of nutrients, which are necessary to keep different parts of the body functioning. For example, milk is rich in vitamin 'A', which is essential for protecting the body from diseases and for good eyesight. Due to its deficiency, the body can become sick and eyesight can be weak. Therefore, our food should contain a balanced amount of these nutrients like proteins, carbohydrates, vitamins and minerals etc.
Some essential dietary rules
• Always take diet according to your work. If you have to do hard physical exertion, then take a more nutritious diet. If you do light physical exertion, then take a light digestible diet.
• Food should be taken at fixed time every day.
• Do not swallow food as soon as you put it in the mouth, but eat it after chewing it, it digests the food quickly.
• Do not rush to eat or be busy in talking.
• Do not eat spicy and fried foods rich in chili-spices. This causes diseases and disorders of the digestive system.
• After taking the diet, take rest for some time.
• Do not drink water between or immediately after meals. It is appropriate that water should be drunk after a while, but if necessary, after eating, drink very little amount of water and after that drink water after staying for some time.
• Keep in mind, do not eat any food item too hot or too cold, nor drink cold water with or after hot food.
• Keep your mind and mind worry-free while taking food.
• Never make a habit of taking digestive powder or any other similar drug after meals. Due to this, the power of digestion becomes weak.
• If possible, take warm milk while sleeping at night.
• If fruits are consumed after meals, it is not only a power booster, but it also helps in digesting the food quickly.
• Eat as much food as you are hungry. The temptation to eat delicious dishes in large quantities is ultimately harmful.
• Do not consume curd or lassi at night.

cleanliness and health
Whether we keep thinking about our health day and night and follow the dietary rules or keep consuming so many nutritious foods to maintain our health, because health can be protected only by cleanliness.
By cleanliness we mean not only physical cleanliness but also our home and surrounding environment. In this regard, you should keep the following things in mind-
• Take a bath with fresh water daily, then dry the skin by rubbing it thoroughly with a towel.
• Make sure to clean the mouth and teeth at least twice a day.
• Always wear clean clothes.
• Drinking and other food items should also be clean, because diseases arise from uncleanness.
• Your home and office should be clean, ventilated and light.
• Always wear clean underwear like normal clothes and change them regularly.
• Like the clothes, the bed should also be clean. Change the bed linen daily and dry the other clothes in the sun.
• Take full care of the items you wear, clothes, towels, combs etc. Do not allow these things to be used by anyone, nor should such things of any other person be used. This spreads disease bacteria.
• Never eat food items that are dirty or dirty or on which flies etc. have settled.
• Do not use anyone's rubbish or wooden utensils, nor allow any other person to use your wooden material or utensils. Follow this rule even among your family members and from the very beginning, children should make a habit of eating separately.
• Clean your teeth and mouth thoroughly before sleeping at night and do the same thing when you wake up in the morning.
• In infectious diseases like cough, cold etc., keep a handkerchief in front of your nose and mouth while coughing or sneezing, so that the bacteria of the disease do not spread.
• If there is a patient in the house or you have to stay with the patient, then whatever the disease may be, it is necessary to stay safe from it and follow the rules of cleanliness.
• Many people have a habit of spitting from place to place, this is not right. If you also have this habit then give it up.
• While doing physical cleaning, do not forget to clean the armpits and genitals.
• Due to the increase of nails of hands and feet, dirt gets filled in them, so do not let the nails grow, keep piercing them from time to time.
• Biting nails through mouth, sucking finger or thumb, putting finger in nose-ear etc. are injurious to health. So discard them.
• Do not breathe through the mouth, breathe through the nose as much as possible.
• Do not sleep with your face covered while sleeping at night.
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(2) Uses of Hydrotherapy
Methods of Hydrotherapy- Normally our body consists of 55 percent to 75 percent water. Therefore, the importance of water is very high from the point of view of health.
(a) Hot-cold compress- Its use provides immediate benefit in all kinds of pain and swelling. First take plenty of hot water in one vessel and very cold (icy) water in another vessel. Take three fluffy towels. Holding both the sides of a towel in hot water, dip it from the middle, squeeze it and keep it on the affected part. Cover with a dry towel on top. After three minutes, soak another towel in cold water - squeeze it and keep it on the affected part for two minutes. Do this sequence at least five times. Bake always starting with hot and ending on cold